🙏राम का जन्म🙏
मन्त्रीगणों तथा सेवकों ने महाराज की आज्ञानुसार श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छुड़वा दिया। महाराज दशरथ ने देश देशान्तर के मनस्वी, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ प्रकाण्ड पण्डितों को यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये बुलावा भेज दिया। निश्चित समय आने पर समस्त अभ्यागतों के साथ महाराज दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा अपने परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभपाद के जामाता ऋंग ऋषि को लेकर यज्ञ मण्डप में पधारे। इस प्रकार महान यज्ञ का विधिवत शुभारम्भ किया गया। सम्पूर्ण वातावरण वेदों की ऋचाओं के उच्च स्वर में पाठ से गूँजने तथा समिधा की सुगन्ध से महकने लगा।
समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा करने के साथ यज्ञ की समाप्ति हुई। राजा दशरथ ने यज्ञ के प्रसाद चरा को अपने महल में ले जाकर अपनी तीनों रानियों में वितरित कर दिया। प्रसाद ग्रहण करने के परिणामस्वरूप परमपिता परमात्मा की कृपा से तीनों रानियों ने गर्भधारण किया।
जब चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे, कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से एक शिशु का जन्म हुआ जो कि श्यामवर्ण, अत्यन्त तेजोमय, परम कान्तिवान तथा अद्भुत सौन्दर्यशाली था। उस शिशु को देखने वाले ठगे से रह जाते थे। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में महारानी कैकेयी के एक तथा तीसरी रानी सुमित्रा के दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ।
सम्पूर्ण राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा। महाराज के चार पुत्रों के जन्म के उल्लास में गन्धर्व गान करने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं। देवता अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे। महाराज ने उन्मुक्त हस्त से राजद्वार पर आये हुये भाट, चारण तथा आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणों और याचकों को दान दक्षिणा दी। पुरस्कार में प्रजा-जनों को धन-धान्य तथा दरबारियों को रत्न, आभूषण तथा उपाधियाँ प्रदान किया गया। चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार महर्षि वशिष्ठ के द्वारा कराया गया तथा उनके नाम रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गये।
आयु बढ़ने के साथ ही साथ रामचन्द्र गुणों में भी अपने भाइयों से आगे बढ़ने तथा प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय होने लगे। उनमें अत्यन्त विलक्षण प्रतिभा थी जिसके परिणामस्वरू अल्प काल में ही वे समस्त विषयों में पारंगत हो गये। उन्हें सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने तथा हाथी, घोड़े एवं सभी प्रकार के वाहनों की सवारी में उन्हें असाधारण निपुणता प्राप्त हो गई। वे निरन्तर माता-पिता और गुरुजनों की सेवा में लगे रहते थे। उनका अनुसरण शेष तीन भाई भी करते थे। गुरुजनों के प्रति जितनी श्रद्धा भक्ति इन चारों भाइयों में थी उतना ही उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द भी था। महाराज दशरथ का हृदय अपने चारों पुत्रों को देख कर गर्व और आनन्द से भर उठता था।.
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🙏राम का जन्म🙏
श्री उमा महेश्वर स्तोत्रं
श्री उमा महेश्वर स्तोत्रं
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां
परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम् ।
नगेन्द्रकन्यावृषकेतनाभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 1 ॥
नमः शिवाभ्यां सरसोत्सवाभ्यां
नमस्कृताभीष्टवरप्रदाभ्याम् ।
नारायणेनार्चितपादुकाभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 2 ॥
नमः शिवाभ्यां वृषवाहनाभ्यां
विरिञ्चिविष्ण्विन्द्रसुपूजिताभ्याम् ।
विभूतिपाटीरविलेपनाभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 3 ॥
नमः शिवाभ्यां जगदीश्वराभ्यां
जगत्पतिभ्यां जयविग्रहाभ्याम् ।
जम्भारिमुख्यैरभिवन्दिताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 4 ॥
नमः शिवाभ्यां परमौषधाभ्यां
पञ्चाक्षरीपञ्जररञ्जिताभ्याम् ।
प्रपञ्चसृष्टिस्थितिसंहृताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 5 ॥
नमः शिवाभ्यामतिसुन्दराभ्यां
अत्यन्तमासक्तहृदम्बुजाभ्याम् ।
अशेषलोकैकहितङ्कराभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 6 ॥
नमः शिवाभ्यां कलिनाशनाभ्यां
कङ्कालकल्याणवपुर्धराभ्याम् ।
कैलासशैलस्थितदेवताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 7 ॥
नमः शिवाभ्यामशुभापहाभ्यां
अशेषलोकैकविशेषिताभ्याम् ।
अकुण्ठिताभ्यां स्मृतिसम्भृताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 8 ॥
नमः शिवाभ्यां रथवाहनाभ्यां
रवीन्दुवैश्वानरलोचनाभ्याम् ।
राकाशशाङ्काभमुखाम्बुजाभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 9 ॥
नमः शिवाभ्यां जटिलन्धराभ्यां
जरामृतिभ्यां च विवर्जिताभ्याम् ।
जनार्दनाब्जोद्भवपूजिताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 10 ॥
नमः शिवाभ्यां विषमेक्षणाभ्यां
बिल्वच्छदामल्लिकदामभृद्भ्याम् ।
शोभावतीशान्तवतीश्वराभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 11 ॥
नमः शिवाभ्यां पशुपालकाभ्यां
जगत्रयीरक्षणबद्धहृद्भ्याम् ।
समस्तदेवासुरपूजिताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 12 ॥
स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं शिवपार्वतीभ्यां
भक्त्या पठेद्द्वादशकं नरो यः ।
स सर्वसौभाग्यफलानि
भुङ्क्ते शतायुरान्ते शिवलोकमेति ॥ 13 ॥
॥ इति श्री शङ्कराचार्य कृत उमामहेश्वर स्तोत्रम ॥
आद्य गुरु शंकराचार्य रचित उमा महेश्वर स्तोत्र
शिव स्तोत्र
भवाय चन्द्रचूडय निर्गुणाय गुणात्मने।
कालकालाय रुद्राय नीलग्रीवाय मङ्गलम् ॥ ॥
वृषारूढ़ाय भीमाय व्याघ्रचरमाम्बराय च।
पशूनां पतये तुभ्यं गौरीकान्ताय मङ्गलम् ॥ 2॥ Continue reading “शिव स्तोत्र”
काल भैरव अष्टक
देवराजसेव्यमानपावनांगृपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम्।
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगम्बरं काशीपुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ॥
भानुकोटिभास्वरं भवब्धितारं परं नीलकंठमीप्सितार्थदयकंलोचन त्रिम्।
कालकालमबुजक्षमक्षूलमक्षरं काशीपुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ 2॥
शूलटंकपाषदण्डपाणिमादिकरणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम्।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशीपुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ 3॥
भुक्तिमुक्तिदायकं पूर्णचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं सर्वलोकविग्रहम्।
विनिक्वन्नमनोज्ञहेमकिङकिनिलसत्कटीं काशीपुराधिनाथकालभैरवं भजे॥ 4॥
धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम्।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमंडलं काशीपुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ 5॥
रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम्।
मृत्युदर्पणं करालदंस्त्रमोक्षणं काशीपुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ 6॥
अट्टहासविभिन्नपद्मजण्डकोषसन्ततिं दृष्टिपातत्तनष्टपापजालमुग्रघ्निम्।
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशीपुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ 7॥
भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशीवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम्।
नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशीपुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ 8॥
॥ फलश्रुति॥
कालभैर्वाष्टकं पाठन्ति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम्।
शोकमोहादन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवन्घृसन्ननोधिं नरा ध्रुवम् ॥
॥इति कालभैरवाष्टकम् सम्पूर्णम्
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श्रीदुर्गासप्तशती – नवमोऽध्यायः ॥निशुम्भ-वध
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निशुम्भ-वध
॥ ध्यानम् ॥
ॐ बन्धुकाञ्चनिभं रुचिराक्षमालां
पाशाङकुशौ च वरदां निजबाहुदण्डैः।
बिभ्राणमिन्दुष्कलाभरणं त्रिनेत्र-
मर्धम्बिकेशमनीशं वपुराश्रयामि॥
“ॐ” राजोवाच॥1॥
विचित्रमिदमाख्यातं भगवान भवता मम।
देव्यश्चचरितमहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम्॥2॥
भूयश्चेचाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते।
चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्चैटिकोपनः॥3॥
ऋषिरुवाच॥4॥
चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपतिते।
शुम्भासुरो http://raghavpja.com निशुम्भश्च हतेश्वन्येषु चावे॥5॥
हन्यमानं महासैन्यं विलोक्यमर्षुदवहं।
अभयधावन्निशुम्भोऽथ मुख्ययासुरसेन्या॥6॥
तस्याग्रतस्तथा पृष्ठे पार्श्वयोश्च महासुरः।
सन्दष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुं देवीमुपायुः॥7॥
अजगम्य महावीरः शुम्भोऽपि स्वबलैरवृतः।
निहंतुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धं तु मातृभिः॥8॥
ततो युद्धमतीवासीदादेवाय शुम्भनिशुम्भयोः।
शरवर्षमतीवोग्रं महयोरिव वर्षतोः॥9॥
चिच्छेदास्तांचरान्स्ताभ्यां चण्डिका स्वश्रोत्करैः*।
तद्यमास चाङ्गेषु शस्त्रौघैरसुरेश्वरौ॥10॥
निशुम्भो निशितं खड्गं चर्म चदाय सुप्रभम्।
अताद्यानमूर्धनि सिंहं देव्य वाहनमुत्तमम्॥11॥
तदीयते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुत्तमम्।
निशुम्भस्याशु चिच्छेद् चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम्॥12॥
छिन्ने चर्मिण खड्गे च शक्तिं चिक्षेप सोऽसुरः।
तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रेणाभिमुखागताम्॥13॥
कोपाध्मातो निशुम्भोऽथ शूलं जागराः दानवः।
इथार्थं* मुष्टिपातेन देवी तच्चप्यचूर्णयत्॥14॥
अविद्याथ* गदां सोऽपि चिक्रम चंडिकां प्रति।
सापि देव त्रिशूलेण भिन्ना भस्मत्वमागता॥15॥
ततः पुरूषुहस्तं तमयन्तं दैत्यपुङ्गवम्।
प्रिय देवी बनौघैरपतयत् भूतले॥16॥
तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुम्भे भीमविक्रमे।
भ्रात्यैव संक्रुद्धः प्रयौ हनतुमम्बिकाम्॥17॥
स रथस्थस्तथातुच्चैर्गृहीत्परमायुधैः।
भुजैरष्टाभिरतुलैर्वयप्यशेषं बभौ नभः॥18॥
तमयन्तं समालोक्य देवी शङ्खमवादयत्।
ज्यशब्दं चापि धनुराश्चक्रतिव दु:सहम्॥19॥
पूरयामास ककुभो निजघन्तस्वनेन च।
समग्रदैत्यसन्यानां तेजोवधाविधिनां॥20॥
ततः सिंहो महानादेयस्त्यजितेभमहामादायः।
पूरयामास गगनं गां तथैव* दिशो दश॥21॥
ततः काली समुत्पत्य गगनं क्षमामतादयत्।
अभ्यासं तन्निनादेन कराक्ष्वानास्ते तिरोहितः॥22॥
अट्टहासमशिवं शिवदूति चकार ह।
तैः शब्दैरसूरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ॥23॥
दूरात्मनस्तिष्ठ तिष्ठेति व्यजहर्बिका यदा।
तदा जयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितैः॥24॥
शुम्भेनागत्य या शक्तिर्मुक्ता जपतिभिषाना।
अयन्ति वह्निकूटाभा सा पुत महोल्कया॥25॥
सिंहनादेन शुभस्य व्याप्तं लोकत्रयन्तरम्।
निर्घटनिःस्वनो घोरो जित्वान्वनिपते॥26॥
शुम्भमुक्ताञ्चरान्देवी शुम्भस्तत्प्रहिताञ्चरान्।
चिच्चेद् स्वश्रयरुग्रैः शतशोऽथ सहस्रशः॥27॥
ततः सा चंडिका क्रुद्ध शुलेनाभिजघं तम्।
स तदाभिहतो भूमौ मूर्च्छितो निपापात ह॥28॥
ततो निशुम्भः सम्प्राप्य अनिमतत्कर्मुः।
अजघन शरीरदेव कालीं केसरीनं तथा॥29॥
पुनश्च कृत्वा बहुनाम्युतं दनुजेश्वरः।
चक्रायुधेन दैतिजश्चद्यमास चण्डिकाम्॥30॥
ततो भगवती क्रुद्धा दुर्गा दुर्गतिनाशिनि।
चिच्छेद् तानि चक्राणि स्वश्रयः सायकांश्च तां॥31॥
ततो निशुम्भो वेगेन गदामादाय चंडिकाम्।
अभ्यधावत् वै हन्तुं दैत्यसेनसमावृतः॥32॥
तस्यापतत् एवसु गदां चिच्छेद् चंडिका।
खड्गेन शीतलधारेण स च शूलं समादे॥33॥
शूलहस्तं समयन्तं निशुम्भमरार्दनम्।
हृदि विव्याधलेन शुलेन वेगविद्धेन चंडिका॥34॥
भिन्नस्य तस्य शुलेन हृदयान्निहसृतोऽपराः।
महाबलो महावीर्यस्थति पुरुषो वदन॥35॥
तस्य निष्क्रमतो देवी प्राहस्य स्वनवत्ततः।
शिरश्चिच्छेद खड्गेन ततोऽसावपतद्भुवि॥36॥
ततः सिंहश्चदोग्रं* दंस्त्राक्षुन्नशिरोधरान्।
असुरंस्थानस्तथा काली शिवदूति तथाप्राण॥37॥
कौमारीशक्तिनिर्भेदाः केचिन्नेशुर्महासुरः।
ब्रह्मानिमंत्रपूतेन तोयेनान्ये निराकृताः॥38॥
माहेश्वरीत्रिशूलेन भिन्नाः पेटुस्तथापरे।
वारहेतुण्डघातेन केचिचूर्णकला भुवि॥39॥
खण्डं* खण्डं च चक्रेण वैष्णव्या दानवः कृतः।
वज्रेण चन्द्रहस्ताग्रविमुक्तेन तथापेरे॥40॥
केचिद्विनेशुराः केचिन्नष्टा महाहवत्।
भक्ताश्चप्रे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः॥ॐ॥41॥
॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
निशुम्भवधो नाम नवमोऽध्यायः॥9॥