🙏विश्वामित्र का आगमन🙏



🙏विश्वामित्र का आगमन🙏
अयोध्यापति महाराज दिसंबर के दरबार में यथोचित आसन पर गुरु प्रवचन, मंत्रिगण और दरबारीगण बैठे थे।
अयोध्यानरेश ने गुरु विश्राम से कहा, हे गुरुदेव! जीवन तो क्षण भंगुर है और मैं वृद्धावस्था की ओर चरम पर जा रहा हूं। राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के चारों ओर ही राजकुमार अब वयस्क भी हो गए हैं। मेरी इच्छा है कि इस शरीर को राजकुमारों की शादी से पहले देख लें। मूलतः आपसे अनुरोध है कि इन राजकुमारों के लिए उपयुक्त कन्याओं की खोज करें। महाराज की बात बिल्कुल वैसी ही है जैसे द्वारपाल ने ऋषि विश्वामित्र के आगमन की जानकारी दी। स्वयं राजा दशरथ ने द्वार तक विश्वामित्र के अभ्यर्थना की और आदर निर्भय के दर्शन कर उन्हें दरबार के स्थान ले आये और गुरु प्रवचन के पास ही उनके यथोचित साक्षात् दर्शन दिये।
कुशलक्षेम प्लांट के प्रसिद्ध राजा मंदिर में अंकित वाणी में ऋषि विश्वामित्र ने कहा था, हे मुनिश्रेष्ठ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ और आपके चरण की पवित्र धूलि से यह राजदरबार और संपूर्ण अयोध्यापुरी धन्य हो गया। अब कृपया अपना आने वाला प्रपोजल बताएं। किसी भी प्रकार की आपकी सेवा लेकर मैं स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली समझूंगा।
राजा के विनयपूर्ण वचनों को सुनकर मुनि विश्वामित्र बोले, हे राजन! आपने अपने कुल के प्रतिबंध के सिद्धांत ही वचन कहे हैं। इक्ष्वाकु वंश के राजकुमार की गुप्त भक्ति गुरु, ब्राह्मण और ऋषि-मुनियों की प्रति सदैव एक ही रहती है। मैं आपके पास एक विशेष प्रस्ताव से आया हूं, समझिए कि कुछ अवसादों के लिए आया हूं। यदि आप मुझे प्राचीन वास्तुशिल्प के वचन देते हैं तो मैं अपनी मांग आपके समक्ष प्रस्तुत करू। आपके दिए गए वचन में मैं बिना कुछ मांगे ही वापस आ गया हूं।
महाराज दशरथ ने कहा, हे ब्रह्मर्षि! आप अपनी मांग को पूरा करें। पूरी दुनिया जानती है कि रघुकुल के राजकुमार का वचन ही उनकी प्रतिज्ञा है। आप मांग रहे हैं तो मैं अपना शीशा कट भी आपके स्टेज पर रख सकता हूं। उनके इन वचनों से प्रेरणा लेकर ऋषि विश्वामित्र बोले, राजन! मैं अपने आश्रम में एक यज्ञ कर रहा हूँ। इस यज्ञ के पूर्णाहुति के समय मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस ज्ञान रक्त, माता आदि अपवित्र देवता यज्ञ वेदी में भस्म देते हैं। इस प्रकार यज्ञ पूर्ण नहीं होता। ऐसा वे कई बार कर चुके हैं। मैं उन्हें अपने तेज़ से श्राप नष्ट भी नहीं कर सकता क्योंकि यज्ञ समय पर क्रोध करना अनुचित है।

    मुझे पता है कि आप मर्यादा का पालन करने वाले, ऋषि मुनियों के हितैषी एवं प्रजावत्सल राजा हैं। मैं विनती करता हूं कि आप ज्येष्ठ पुत्र राम की मांग करें ताकि वह मेरे साथ राक्षसों की रक्षा कर सके और मेरा यज्ञानुष्ठान निर्विघ्न पूरा हो सके। मुझे पता है कि राम आसानी से उन दोनों का संहार कर सकते हैं। मूलतः केवल दस दिन के लिए राम को मुझे दे देना। कार्य पूरा हुआ ही मैं उन्हें कुशल आपके पास वापस आ गया दंगल।
विश्वामित्र की बात से राजा दशरथ को अत्यंत दुःख हुआ। ऐसा लगा कि अभी वे मूर्च्छित हो गये। फिर स्वयं को सहारा देकर उन्होंने कहा, मुनिवर! राम अभी बच्चा है। राक्षसों का सामना करना उसके लिए संभव नहीं होगा। आपके यज्ञ की रक्षा करने के लिए मैं स्वयं ही जाने को तैयार हूं। विश्वामित्र बोले, राजन! आप तनिक भी सन्देह नहीं कर सकते कि राम उनका सामना नहीं कर सकते। मैंने अपने योगबल से उनकी शक्तियों का अनुमान लगाया है। आप निश्चिंत राम को मेरे साथ भेज दीजिए।
इस पर राजा दशरथ ने उत्तर दिया, हे मुनिश्रेष्ठ! राम ने अभी तक किसी राक्षस की माया प्रपंचों को नहीं देखा है और उसे इस प्रकार के युद्ध का अनुभव भी नहीं है। जब से वह पैदा हुई है, मैंने उसे अपनी आँखों के सामने से कभी ओझल भी नहीं दिया है। उसके वियोग से मेरा प्राण निकल जायेगा। आपसे विनती है कि कृपया मुझे सैंय टर्नओवर के आदेश के बारे में बताएं।
पुत्रमोह से प्रभावित राजा दीक्षांत समारोह को अपनी प्रतिज्ञा से मनाते हुए देख ऋषि विश्वामित्र आवेश में आ गए। उन्होंने कहा, राजन! मुझे नहीं पता था कि रघुकुल में अब प्रतिज्ञा पालन की परंपरा समाप्त हो गई है। यदि पता चलता है तो मैं कदापि नहीं आता। लो मैं अब चल रहा हूँ। बात ख़त्म हो गई उनके मुँह पर गुस्सा से लाल हो गया।
विश्वामित्र को इस प्रकार के क्रीड़ा प्रकार देखने को मिलते हैं। गुरु राजवंश ने राजा को समझाया, हे राजन! पुत्र के मोह में पतिव्रता रघुकुल की मर्यादा, प्रतिज्ञा पालन और सत्यनिष्ठा को कलंकित मत करना। मैं आपको सलाह देता हूं कि आप राम के बालक होने की बात भूल जाएं और निश्शंक राम को मुनिराज के साथ भेजें। महामुनि परम विद्वान, नीतिनिपुण और अस्त्र-शास्त्र के ज्ञाता हैं। मुनिवर के साथ जाने से राम का किसी प्रकार से भी कोई लेना-देना नहीं हो सकता, वे उनके साथ रह कर शस्त्र और शास्त्र विद्याओं में महान कलाकार हो जायेंगे और उनका कल्याण ही होगा।
गुरु दशमी के वचनों से नकारात्मक पक्ष, राजा दशमीर ने राम को बुलाया। राम के साथ-साथ लक्ष्मण भी वहाँ चले आओ। राजा दशहरा ने राम को ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने की आज्ञा दी। पिता की आज्ञा शिरोधार्य लेकर राम के मुनिवर के साथ जाने के लिए तैयार हो जाएं पर लक्ष्मण ने भी ऋषि विश्वामित्र से साथ चलने के लिए प्रार्थना की और अपने पिता से भी राम के साथ जाने के लिए मांग की। राम और लक्ष्मण पर सभी गुरुजनों से आशीर्वाद लेकर ऋषि विश्वामित्र के साथ चल पड़े।
सभी अयोध्यावासियों ने देखा कि मंदिर के पीछे से मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के पीछे की मूर्ति धनुष और टार्कस में बाण राखे दोनों भाई राम और लक्ष्मण ऐसे लग रहे थे मानो ब्रह्मा जी के पीछे दोनों अश्विनी कुमार चले जा रहे हों। अद्भुत कांति से युक्त दोनों भाई गोह की त्वचा से बने काजल के सितारे तूफ़ान थे, हाथों में धनुराम और कटि में तीक्ष्ण धार वाली कृपाणें शोभायमान हो रही थीं। ऐसा अनोखा हुआ था मनो स्वयं शौर्य ही शरीर धारण करके उठ जा रहे थे।
टाटा विटपों के मध्य से पर्वत छत कोस महंगा मार्ग पार करके वे पवित्र सरयू नदी के तट पर पहुँचे। मुनि विश्वामित्र ने स्नेहयुक्त मधुर वाणी में कहा, हे वत्स! अब तुम लोग सरयू के पवित्र जल से आचमन स्नानादि करके अपनी थकान दूर कर लो, फिर मैं विश्राम प्रशिक्षण दूँगा। प्रथम मैं शत्रु बल और अतिबला नामक विद्या सिखाऊंगा। इन विद्याओं के विषय में राम की जिज्ञासा प्रकट होती हुई ऋषि विश्वामित्र ने बताई, ये दोनों ही विद्याएँ प्रमुख हैं। इन विद्याओं में पारंगत लोगों की गिनती दुनिया के श्रेष्ठ पुरुषों में होती है। विद्वान ने अन्वेषक ने सभी विद्याओं की जननी बताई है। इन विद्याओं को प्राप्त करके तुम भूख और प्यास पर विजय प्राप्त करो। इन तेजोमय विद्याओं की सृष्टि स्वयं ब्रह्मा जी ने की है। इन विद्याओं को पाने का अधिकारी समझ कर मैं साम्राज्य उदाहरण प्रदान कर रहा हूँ।
राम और लक्ष्मण की स्नानादि से निवृत्त होने के मूर्तिमान विश्वामित्र जी ने उन्हें इन विद्याओं का दीक्षा दी। इन विद्याओं के प्राप्त होने पर उनके मुख मंडल पर अद्भुत होने का कांति आ गया। त्रि ने सरयू तट पर ही विश्राम किया। गुरु की सेवा के लिए दोनों भाई त्रिण साडी पर सो गए..

गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र


  • गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र –
    श्री शुक उवाच –
    एवं विसितो बुद्धया समाधाय मनो हृदि।
    जजप परमं जप्यं प्राग्जन्मन्यानुशिक्षितम् ॥1॥
    गजेन्द्र उवाच –
    ऊँ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मिकम्।
    पुरुषयादिबीजाय परेशयाभिधिमहि ॥2॥

    यस्मिन्निदं यत्श्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
    योस्मात्परसमाच्च प्रस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम् ॥3॥

    यः स्वात्मनीदं निजमायार्पितं
    क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्।
    अविद्यादृक लक्षणुभयं तदीक्षते
    स आत्मा मूलोस्वत् मां प्राप्तपरः ॥4॥

    कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
    लोकेषु पलेषु च सर्व कायषु।
    तमस्तदाऽऽसीद सघनं गभीरं
    यस्तस्य पारेसभिविराजते विभुः ॥5॥

    न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-
    रजन्तुः पुनःप्राप्ति कोषेरहति गन्तुमिरितुम।
    यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
    दूरत्यानुक्रमणः स मावतु ॥6॥

    दिदृक्षवो यस्य पदं समुंगलम
    विमुक्त संग मनुष्यः सुसाधवः।
    चरन्त्यलोकव्रतमवरणं वने
    भूतात्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥7॥

    न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा
    न नाम रूपे गुणदोष एव वा।
    तथापि लोकाप्यस्माभवाय यः
    स्वमाया तान्यनुकालमृच्छति ॥8॥

    तस्मै नमः परेषाय ब्रह्मणेसन्तशक्तये।
    अरूपयोरुरूपाय नम चमत्कार कर्मणे ॥जय॥

    नम आत्म प्रदीपाय साक्षिने परमात्मने।
    नमो गिरं विदुराय मनश्चेतसामपि ॥10॥

    सत्त्वेन प्रतिलाभ्याय नैष्कर्मयेन विपश्चिता।
    नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥॥

    नमः शांताय घोराय मूढ़ाय गुण धर्मिने।
    निर्विशेषाय साम्यै नमो ज्ञानघ्नाय च ॥12॥

    ज्ञानाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय क्षेत्रे।
    पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥5॥

    सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
    असतच्चययोक्ताय सदाभासय ते नमः 14॥

    नमोस्खिल कारणाय
    निष्कारणायाद्भुत कारणाय।
    सर्वागमनमयमहार्णाय
    नामोपवर्गाय परायणाय ॥15॥

    गुणारिच्छन्न चिदुश्मपाय
    तत्क्षोभविस्फूर्जित मनसाय।
    नैष्कर्मभावेन विवर्जितागम-
    स्वयंप्रकाशाय नमस्कारोमि ॥16॥

    मादृकप्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
    मुक्ताय भूरिकुर्णाय नमोशलाय।
    स्वांशेन सर्वतनुभृण्मंसि स्पष्ट-
    प्रत्यगदृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥17॥

    आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
    रुदुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।
    मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
    ज्ञानात्मने भगवते नाम ईश्वराय ॥18॥

    यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
    भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
    किं त्वशिषो रात्यपि देहमव्यं
    करोतु मेसद्भ्रदयो विमोक्षणम् ॥19॥

    एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ
    वञ्चन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
    अत्यद्भुतं तच्चरीतं समुंगलं
    गयन्त आनंद समुद्रमग्नाः ॥20॥

    तमाक्षरं ब्रह्म परं परेश
    -मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्।
    अतिइन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-
    मनन्तमाद्यं उत्तममीडे ॥21॥

    यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकश्चराचारः।
    नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कल्याण कृतः ॥22॥

    यथार्चिशोसग्नेः सवितुर्ग्भस्तयो
    निर्यान्ति संयन्त्यसकृत स्वरोचिषः।
    तथा यतोस्यं गुणसंप्रवाहो
    बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गः ॥3॥

    स वै न देवासुरमृत्युतिर्यंग
    न स्त्री न शन्दो न पुमान न जन्तुः।
    नयं गुणः कर्म न सन्न चासन
    निषेधेषो जयतादशेषः ॥मोटो॥

    जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
    मन्तर्बहिश्चावृतयेभ्योन्या।
    इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
    स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम् ॥25॥

    सोषं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्।
    विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्राणतोस्मि परं पदम् ॥26॥

    योगरान्धित कर्मणो हृदि योगविभाविते।
    योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगं तं नतोस्स्म्यहम् ॥27॥

    नमो नमस्तुभ्यमसहायवेग
    -शक्तित्रयाखिलधिगुणाय।
    प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
    कादिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥28॥

    नयं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्।
    तं दूरत्यमाहात्म्यं भगवन्तमितोस्म्यहम् ॥29॥

    श्री शुकदेव उवाच –
    एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
    ब्रह्माद्यो विविधलिंगभिदाभिमानः।
    नैते यदोपसृपूर्णखिलात्मकत्वात्
    तत्राखिलारामयो हरिराविरसीत् ॥30॥

    तं तद्वदर्त्तमुपलाभ्य जगन्निवासः
    स्तोत्रं निशम्य दिव्यः सह संस्तुवद्भिः।
    छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान् –
    चक्रयुधोसभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥3॥

    सोसंतस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्ततो
    दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपत्तचक्रम।
    उत्क्षेप्य साम्बुजकरं गिरमह कृच्छ –
    नारायणखिलगुरो भगवान्मस्ते ॥32॥

    तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावैतिर्य
    सग्रहमाशु सरसः कृपायोज्जहार।
    ग्रहाद विपतिमुखाद्रिणा गजेन्द्रं
    संपश्यतां हरिर्मुमुच दुस्त्रियानाम् ॥33॥
    – श्री गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन

श्री उमा महेश्वर स्तोत्रं


श्री उमा महेश्वर स्तोत्रं

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां
परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम् ।
नगेन्द्रकन्यावृषकेतनाभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 1 ॥

नमः शिवाभ्यां सरसोत्सवाभ्यां
नमस्कृताभीष्टवरप्रदाभ्याम् ।
नारायणेनार्चितपादुकाभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 2 ॥

नमः शिवाभ्यां वृषवाहनाभ्यां
विरिञ्चिविष्ण्विन्द्रसुपूजिताभ्याम् ।
विभूतिपाटीरविलेपनाभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 3 ॥

नमः शिवाभ्यां जगदीश्वराभ्यां
जगत्पतिभ्यां जयविग्रहाभ्याम् ।
जम्भारिमुख्यैरभिवन्दिताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 4 ॥

नमः शिवाभ्यां परमौषधाभ्यां
पञ्चाक्षरीपञ्जररञ्जिताभ्याम् ।
प्रपञ्चसृष्टिस्थितिसंहृताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 5 ॥

नमः शिवाभ्यामतिसुन्दराभ्यां
अत्यन्तमासक्तहृदम्बुजाभ्याम् ।
अशेषलोकैकहितङ्कराभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 6 ॥

नमः शिवाभ्यां कलिनाशनाभ्यां
कङ्कालकल्याणवपुर्धराभ्याम् ।
कैलासशैलस्थितदेवताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 7 ॥

नमः शिवाभ्यामशुभापहाभ्यां
अशेषलोकैकविशेषिताभ्याम् ।
अकुण्ठिताभ्यां स्मृतिसम्भृताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 8 ॥

नमः शिवाभ्यां रथवाहनाभ्यां
रवीन्दुवैश्वानरलोचनाभ्याम् ।
राकाशशाङ्काभमुखाम्बुजाभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 9 ॥

नमः शिवाभ्यां जटिलन्धराभ्यां
जरामृतिभ्यां च विवर्जिताभ्याम् ।
जनार्दनाब्जोद्भवपूजिताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 10 ॥

नमः शिवाभ्यां विषमेक्षणाभ्यां
बिल्वच्छदामल्लिकदामभृद्भ्याम् ।
शोभावतीशान्तवतीश्वराभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 11 ॥

नमः शिवाभ्यां पशुपालकाभ्यां
जगत्रयीरक्षणबद्धहृद्भ्याम् ।
समस्तदेवासुरपूजिताभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ 12 ॥

स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं शिवपार्वतीभ्यां
भक्त्या पठेद्द्वादशकं नरो यः ।
स सर्वसौभाग्यफलानि
भुङ्क्ते शतायुरान्ते शिवलोकमेति ॥ 13 ॥
॥ इति श्री शङ्कराचार्य कृत उमामहेश्वर स्तोत्रम ॥
आद्य गुरु शंकराचार्य रचित उमा महेश्वर स्तोत्र

अन्नपूर्णा स्तोत्र

नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी
निर्धूताखिलघोरपावनकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी ।
प्रालेयाचलवंशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥१॥
नानारत्नविचित्रभूषणकरी हेमाम्बराडम्बरी
मुक्ताहारविलम्बमानविलसद्वक्षोजकुम्भान्तरी
काश्मीरागरुवासिताङ्गरुचिरे काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥२॥
योगानन्दकरी रिपुक्षयकरी धर्मार्थनिष्ठाकरी
चन्द्रार्कानलभासमानलहरी त्रैलोक्यरक्षाकरी
सर्वैश्वर्यसमस्तवाञ्छितकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥३॥
कैलासाचलकन्दरालयकरी गौरी उमा शङ्करी
कौमारी निगमार्थगोचरकरी ओङ्कारबीजाक्षरी ।
मोक्षद्वारकपाटपाटनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥४॥
दृश्यादृश्यविभूतिवाहनकरी ब्रह्माण्डभाण्डोदरी
लीलानाटकसूत्रभेदनकरी विज्ञानदीपाङ्कुरी
श्रीविश्वेशमनःप्रसादनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥५॥
उर्वीसर्वजनेश्वरी भगवती मातान्नपूर्णेश्वरी
वेणीनीलसमानकुन्तलहरी नित्यान्नदानेश्वरी ।
सर्वानन्दकरी सदा शुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥६॥
आदिक्षान्तसमस्तवर्णनकरी शम्भोस्त्रिभावाकरी
काश्मीरात्रिजलेश्वरी त्रिलहरी नित्याङ्कुरा शर्वरी ।
कामाकाङ्क्षकरी जनोदयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥७॥
देवी सर्वविचित्ररत्नरचिता दाक्षायणी सुन्दरी
वामं स्वादुपयोधरप्रियकरी सौभाग्यमाहेश्वरी
भक्ताभीष्टकरी सदा शुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥८॥
चन्द्रार्कानलकोटिकोटिसदृशा चन्द्रांशुबिम्बाधरी
चन्द्रार्काग्निसमानकुन्तलधरी चन्द्रार्कवर्णेश्वरी
मालापुस्तकपाशासाङ्कुशधरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥९॥
क्षत्रत्राणकरी महाऽभयकरी माता कृपासागरी
साक्षान्मोक्षकरी सदा शिवकरी विश्वेश्वरश्रीधरी ।
दक्षाक्रन्दकरी निरामयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥१०॥
अन्नपूर्णे सदापूर्णे शङ्करप्राणवल्लभे ।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति ॥११॥
माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः ।
बान्धवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥१२॥

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