बेंगलुरू में उत्तर भारतीय पंडित 



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    उत्तर भारतीय पंडित के अनुसार

    पटना में हिंदी पंडित

    देविकवच स्तोत्र. Near me pandit in patna 8210360545

    दुर्गा *देविकवच स्तोत्र। नियर मी पंडित इन पटना 8210360545 एक शक्तिशाली संस्कृत स्तुति है, जो माँ दुर्गा को समर्पित है। इसका उद्देश्य देवी दुर्गा की कृपा और उनकी सुरक्षा प्राप्त करना है। यह स्तोत्र **मार्कंडेय पुराण** के अंतर्गत आता है और **दुर्गा सप्तशती** का एक महत्वपूर्ण भाग है। भक्त इस स्तोत्र का पाठ देवी से सुरक्षा, मानसिक शक्ति और आध्यात्मिक मार्गदर्शन की प्रार्थना करते हैं। देविकवाच के श्लोकों में गहरे आध्यात्म और चित्रण का समावेश है, जो भक्त के जीवन के हर सिद्धांत को सुरक्षित करने की प्रेरणा देता है।
    संरचना और महत्व

    “कवच” का अर्थ “रक्षा कवच” या “ढाल” होता है। **देविकावाच स्तोत्र** का पाठ करना मुख्य उद्देश्य एक आभासी सुरक्षा कवच का निर्माण करना है, जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शिक्षा से बचाव करता है। यह स्तोत्र विभिन्न देवी-देवताओं का आह्वान करके शरीर के विभिन्न अंगों और जीवन के सिद्धांतों की सुरक्षा की प्रार्थना करता है।देविकावच स्तोत्र। नियर मी पंडित इन पटना 8210360545

    इस स्तोत्र में **महाकाली**, **महालक्ष्मी**, और **सरस्वती** की तरह विभिन्न देवियों का उल्लेख है, रावण शरीर के विभिन्न अंगों की सुरक्षा की प्रार्थना की जाती है। देविकवच स्तोत्र. नियर मी पंडित इन पटना 8210360545 जैसे:
    – **दुर्गा** से संपूर्ण शरीर की सुरक्षा के लिए प्रार्थना की जाती है।
    – **चामुंडा** को सिर की रक्षा के लिए बुलाया जाता है।
    – **भद्रकाली** से हृदय की सुरक्षा के लिए प्रार्थना की जाती है।

    इस प्रकार, यह स्तोत्र एक समग्र आध्यात्मिक साधना का प्रतीक है।

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    देवीवाच स्तोत्र का महत्व केवल इसके शाब्दिक अर्थ में है, बल्कि इसका नामकरण रूप भी है, जो ब्रह्मांडीय शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। हर देवी किसी न किसी ब्रह्मांडीय शक्ति या सिद्धांत का प्रतीक है, और कवच इस बात का संकेत है कि माँ दुर्गा की रक्षा करने वाली और पोषण करने वाली शक्तियाँ हर पल हमारे साथ हैं।

    इस स्तोत्र का पाठ न केवल देवी की कृपा को प्राप्त करना है, बल्कि यह हमें याद है कि ब्रह्मांड में और हमारे अंदर **शक्ति** (दिव्य स्त्री शक्ति) का वास है। यह स्तोत्र हमें मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है, जो हमारे जीवन में आने वाली कथा से लौटने की शक्ति प्रदान करता है। देविकवच स्तोत्र. मेरे निकट पंडित पटना 8210360545

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    1. **नाकारात्मक शक्तियों से सुरक्षा**: **दैविकवच स्तोत्र** का मुख्य विषय नकारात्मक और दैविक शक्तियों से सुरक्षा है। यह स्तोत्र भौतिक शत्रुओं, बुरे सपनों और मानसिक नकारात्मकता से बचने के लिए देवी से सहायता मांगता है।

    2. **शक्ति का आह्वान**: हर श्लोक देवी की कृपा और शक्ति का आह्वान करता है। यह स्तोत्र भक्त के अंदर सोई हुई शक्ति को जगाने का साधन है, जिससे वे देवी की ऊर्जा अपने जीवन में प्रसारित कर सकते हैं।

    3. **आध्यात्मिक शक्ति**: नियमित रूप से इस स्तोत्र का पाठ करने से भक्त रूप से मजबूत अनुभूति होती है। शरीर के विभिन्न अंगों और आत्मा के विभिन्न सिद्धांतों की रक्षा की प्रार्थना करके, भक्त मानसिक और ध्वनि रूप से दृढ़ हो जाते हैं। देविकवच स्तोत्र. नियर मी पंडित इन पटना 8210360545

    4. **स्वास्थ्य और कल्याण**: **देविकवाच** केवल सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और कल्याण के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह मन, शरीर और आत्मा को श्रवण प्रदान करने का माध्यम है, और यह मानसिक तनाव को कम करने, ध्यान केन्द्रित करने और स्थिरता स्थिरता लाने में मदद करता है।

    ### पाठ का लाभ

    1. **मानसिक शांति**: **देविकावाच** का पाठ मन और आत्मा को शांति प्रदान करता है। इसके श्लोकों का लयबद्ध उच्चारण ध्यान की स्थिति उत्पन्न करता है, जो चिंता और तनाव को कम करता है।

    2. **आध्यात्मिक आन्दोलन**: इस स्तोत्र के नियमित पाठ से भक्त उच्च आध्यात्मिक आदर्शों की ओर अव्यवस्थित होते हैं। देवी की दिव्यता पर ध्यान केन्द्रित करने से धार्मिक स्थलों से मुक्ति मिलती है और भक्त का आत्मिक विकास होता है।

    3. **शारीरिक सुरक्षा**: बहुत से लोग यात्रा के दौरान या संकट के समय **देविकवच स्तोत्र** का पाठ करते हैं, ऐसा माना जाता है कि यह उन्हें सीख और दोस्ती से सीखता है।

    4. **सकारात्मक ऊर्जा**: यह स्तोत्र आसपास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करता है, जिससे शांति, सौहार्द और आध्यात्मिक रचनात्मकता का माहौल बनता है। नवरात्रि या अन्य महत्वपूर्ण अवसरों पर इसका पाठ करने से देवी की कृपा प्राप्त होती है।

    ### निष्कर्ष

    **देविकावच स्तोत्र** केवल सुरक्षा के लिए प्रार्थना नहीं है, यह एक संविधान का स्तोत्र है, जो भक्त को यह प्रमाणित करता है कि देवी की शक्ति हमारे अंदर ही समाहित है। पवित्र श्लोकों के माध्यम से देवी का आह्वान करते समय भक्त न केवल अपनी रक्षा की प्रार्थना करते हैं, बल्कि आध्यात्मिक दृढ़ता, दृढ़ता और कल्याण की भी कामना करते हैं। दैनिक साधना के रूप में या विशेष अवसरों पर, **देविकावाच** हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण स्थान है, जिसकी शक्ति, शांति और दिव्य सुरक्षा के लिए पूजा की जाती है।

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    देवी कवच

    ॐ अस्य श्रीचण्डीकवाचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः,
    चामुण्ड देवता, अङ्गान्यसोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्,
    श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठङ्गत्वेन जपे विनियोगः।
    ॐ नमरामाचण्डिकायै॥
    मार्कण्डेय उवाच
    ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षकं नृणाम्।
    यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥1॥
    ब्रह्ममोच
    अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्।
    देव्यस्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥2॥
    प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
    तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥3॥
    पंचमं स्कंदमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
    सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम्॥4॥
    नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
    उक्तानयेतानि नामानि ब्राह्मणैव महात्मना॥5॥
    अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रने।
    विषमे दुर्गमे चैव भयावहताः शरणं गताः॥6॥
    न तेषां जायते किंचिदशुभं ऋणसंकते।
    नापादं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥7॥
    यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषं वृद्धिः प्रजायते।
    ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तन्न संशयः॥8॥
    प्रेतसंस्था तु चामुंडा वाराहि महिषासना।
    ऐन्द्री गजसमारुधा वैष्णवी गरुडासना॥य॥
    माहे वाल्वारी वृषारूढ़ा कौमारी शिखिवाहना।
    लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥10॥
    वाल्लेतरूपधारा देवी ई वाल्री वृषभाना।
    ब्राह्मी हंससमारुधा सर्वाभरणभूषिता॥॥
    इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
    नानाभरणशोभाद्य नानारत्नोपशोभिताः॥12॥
    दृश्यन्ते रथमारुढ़ा देव्याः क्रोधसमाकुलाः।
    शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलयुधम्॥3॥
    खेतकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
    कुंतायुधं त्रिशूलं च शारंगमायुधमुत्तमम्॥14॥
    दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभाय च।
    धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥15॥
    नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
    महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनी॥16॥
    त्राहि मां देवी दुष्प्रेक्ष्ये शत्रुणां भयवर्धिनि।
    प्राच्यां रक्षतु मामैंन्द्री अग्नियैमग्निदेवता॥17॥
    दक्षिणेऽवतु वाराहि नैर्ऋत्यं खड्गधारिणी।
    प्रतिच्यां वारुणि रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥18॥
    उदिच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
    ऊर्ध्वं ब्रह्मानि मे रक्षेदहस्तद् वैष्णवी तथा॥19॥
    एवं दश दिशो रक्षेच्छमुंडा शववाहना।
    जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥20॥
    अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापिता।
    शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्धनी सस्था॥21॥
    मालाधारी ललाते च भुरुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
    त्रिनेत्र च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥22॥
    शङ्खिनि चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
    कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शंकरी॥तीस॥
    नासिकायां सुगंधा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
    अधारे चामृतकला जिह्वयां च सरस्वती॥24॥
    दन्तं रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
    घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥25॥
    कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वचनं मे सर्वमङ्गला।
    उदरायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धारी॥26॥
    नीलग्रीवा बहिःकंथे नालिकां नलकूबरी।
    स्कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद् बाहु मे वज्रधारिणी॥27॥
    हस्तयोर्दन्दिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलिशु च।
    नखञ्छूले वल्रि रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुले वल्रि॥28॥
    स्तनौ रक्षेनमहादेवी मनः शोकविनाशिनी।
    हृदये ललिता देवी उद्रे शूलधारिणी॥29॥
    नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्ये वल्रि तथा।
    पूतना कामिका मेढ्रं गुडे महिषावाहिनी ॥30॥
    कात्यां भगवती रक्षेज्जनुनि विन्ध्यवासिनी।
    जङ्घे महाबाला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥31॥
    गुल्फ़योर्नासिंघी च पादपृष्ठे तु तैजसी।
    पादङ्गुलिषु श्री रक्षेत्पादधस्तलवासिनी॥32॥
    नखां दंस्त्रकराली च केसांशिश्चैवोर्ध्वकेशिनी।
    रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागी वल्वारी तथा॥33॥
    रक्तमज्जवसामांसंन्यास्थिमेदनसि पार्वती।
    अन्तराणि कालरात्रिकल्प च पित्तं च मुकुटे वल्वारी॥344॥
    पद्मावती पद्मकोशे कफे चूड़ामणिस्तथा।
    वर्णो नखज्वलमभेदद्य सर्वसंधिषु॥35॥
    शुक्रं ब्रह्मानि मे रक्षेछायां छत्रे वल्रि तथा।
    उभयं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥36॥
    प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
    वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥37॥
    रसे रूपे च गंधे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
    सत्त्वं रजस्तमश्यैव रक्षेननारायणी सदा॥38॥
    अउ रक्षतु वाराहि धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
    यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥39॥
    गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशुन्मे रक्ष चण्डिके।
    पुत्रान् रक्षेनमहालक्ष्मीर्भार्यं रक्षतु भैरी॥चार्टी॥
    पंथानं सुपथ रक्षेनमार्गं क्षेमकरी तथा।
    राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजय सर्वतः स्थिता॥41॥
    रक्षाहीनं तु यत्स्थानं नैवेद्यं कवचेन तु।
    तत्सर्वं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनि॥42॥
    पदमेकं न गच्छेत्तु यदिच्छेच्छुभमात्मनः।
    कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥43॥
    तत्र तत्रार्थलाभाश्च विजयः सार्वकामिकः।
    यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निष्चितम्।
    परमैर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥444॥
    निर्भयो जायते मर्त्यःबातेश्वपराजितः।
    त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृत्तः पुमान्॥45॥
    इदं तु देव्यः कवचं देवानामपि दुर्लभम्।
    यः पत्थेत्प्रयतो नित्यं त्रिसंध्यं श्रेयान्वितः॥46॥
    दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।
    जीवेद वर्षशतं सागरमपमृत्युविवर्जितः। 47॥
    नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लुटविस्फोटकादयः।
    स्थावरं जङगमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विशम्॥48॥
    अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।
    भूचराः खेचराश्यैव जलजारामाचोपदेशिकाः॥49॥
    सहजा कुलजा मेल मेलकिनी शाकिनी तथा।
    अन्तरिक्षचर घोरा डाकिन्यमश्च महाबलः॥50॥
    ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगंधर्वराक्षसः।
    ब्रह्मरक्षास्वेतालाः कूष्माण्डा भैरवदायः ॥51॥
    नश्यन्ति दर्शनात्तस्य क्वाचे हृदि संस्थिते।
    मनोनातिरभवेद् राज्यस्तेजो भगवन्करं परम॥52॥
    यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमंडितभूतले।
    जपेत्सप्तशतिं चण्डिं कृत्वा तु कवचं पुरा॥53॥
    यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्।
    तावत्तिष्ठति मेदिन्यं संततिः पुत्रपौत्रिकि॥5
    देहन्ते परमं स्थानं यत्सुरैपि दुर्लभम्।
    प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥55॥
    लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥56॥
    इति देव्यः क्वाचं संपूर्णम्। 

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    🙏राम का जन्म🙏



    🙏राम का जन्म🙏
    मन्त्रीगणों तथा सेवकों ने महाराज की आज्ञानुसार श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छुड़वा दिया। महाराज दशरथ ने देश देशान्तर के मनस्वी, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ प्रकाण्ड पण्डितों को यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये बुलावा भेज दिया। निश्चित समय आने पर समस्त अभ्यागतों के साथ महाराज दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा अपने परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभपाद के जामाता ऋंग ऋषि को लेकर यज्ञ मण्डप में पधारे। इस प्रकार महान यज्ञ का विधिवत शुभारम्भ किया गया। सम्पूर्ण वातावरण वेदों की ऋचाओं के उच्च स्वर में पाठ से गूँजने तथा समिधा की सुगन्ध से महकने लगा।

        समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा करने के साथ यज्ञ की समाप्ति हुई। राजा दशरथ ने यज्ञ के प्रसाद चरा को अपने महल में ले जाकर अपनी तीनों रानियों में वितरित कर दिया। प्रसाद ग्रहण करने के परिणामस्वरूप परमपिता परमात्मा की कृपा से तीनों रानियों ने गर्भधारण किया।
    जब चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे, कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से एक शिशु का जन्म हुआ जो कि श्यामवर्ण, अत्यन्त तेजोमय, परम कान्तिवान तथा अद्भुत सौन्दर्यशाली था। उस शिशु को देखने वाले ठगे से रह जाते थे। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में महारानी कैकेयी के एक तथा तीसरी रानी सुमित्रा के दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ।

        सम्पूर्ण राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा। महाराज के चार पुत्रों के जन्म के उल्लास में गन्धर्व गान करने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं। देवता अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे। महाराज ने उन्मुक्त हस्त से राजद्वार पर आये हुये भाट, चारण तथा आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणों और याचकों को दान दक्षिणा दी। पुरस्कार में प्रजा-जनों को धन-धान्य तथा दरबारियों को रत्न, आभूषण तथा उपाधियाँ प्रदान किया गया। चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार महर्षि वशिष्ठ के द्वारा कराया गया तथा उनके नाम रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गये।
    आयु बढ़ने के साथ ही साथ रामचन्द्र गुणों में भी अपने भाइयों से आगे बढ़ने तथा प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय होने लगे। उनमें अत्यन्त विलक्षण प्रतिभा थी जिसके परिणामस्वरू अल्प काल में ही वे समस्त विषयों में पारंगत हो गये। उन्हें सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने तथा हाथी, घोड़े एवं सभी प्रकार के वाहनों की सवारी में उन्हें असाधारण निपुणता प्राप्त हो गई। वे निरन्तर माता-पिता और गुरुजनों की सेवा में लगे रहते थे। उनका अनुसरण शेष तीन भाई भी करते थे। गुरुजनों के प्रति जितनी श्रद्धा भक्ति इन चारों भाइयों में थी उतना ही उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द भी था। महाराज दशरथ का हृदय अपने चारों पुत्रों को देख कर गर्व और आनन्द से भर उठता था।.

    आदित्यहृदय स्तोत्र

    आदित्यहृदय स्तोत्र ततो युद्धपरिश्रांतं समरे चिन्तया स्थितम्।
    रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ॥1॥दैवतैश्च समागम्य दृष्टुभ्यगतो रणम्।
    उपगम्यब्रविद राममगरत्यो भगवानस्तदा ॥2॥राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम्।
    येन सर्वारिन वत्स स्मरे विजयिष्यसे
    ॥3॥आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
    जयवाहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥4॥सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
    चिंताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ॥5॥रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
    पूज्यस्व विववंतं भास्करं भुवनम् ॥6॥सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
    एष देवासुरगणालोकान् पति गभस्तिभिः ॥7॥एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
    मचो धनदाः कालो यमः सोमो ह्यापं पतिः ॥8॥पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः।
    वायुर्वह्निः प्रजाः प्राण ऋतुमक्तर मालाः ॥9॥आदित्यः सविताः सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान्।
    सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता दिवाकरः ॥10॥हरिदश्वः सहस्रारचिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
    मिरोन्मथनाः शम्भूस्तष्टा मर्दण्डकोंऽशुमान् ॥11॥हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो ति रविः।
    अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ॥12॥व्योमनाथस्तमोभेदी रम्यजुःसाम्परागः।
    घनवृष्टिरपं मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥आत्पि मंडली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
    कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभावोद्भवः ॥14॥नक्षत्रगृहतारणमधिपो विश्वभावनः।
    तेजसामपि उगे द्वादशात्मन नमोऽस्तु ते ॥15॥नमः पूर्वाय गिर्ये पश्चिमयाद्रये नमः।
    ज्योतिर्गणानां पतये दीनाधिपतये नमः ॥16॥जयाय जयभद्राय ह्र्यश्वाय नमो नमः।
    नमो नमः सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥17॥नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
    नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥ब्रह्मेषाणाच्युतेषाय सुर यिदत्यवर्चसे।
    भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥19॥तमोघनाय हिमघनाय शत्रुघ्नयामितात्मने।
    कृतघ्नघनाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥20॥तप्तचामिकराभय हस्ये विश्वकर्मणे।
    नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः।
    पायत्येष तप्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥22॥एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिणितैः।
    एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥23 ॥देवाश्च कृतवश्चैव कृतौनां फलमेव च।
    अर्थात कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ॥24॥न्मापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तरेषु भयेषु च।
    कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नवसीदति राघव ॥25॥पूज्यस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
    एतत् त्रिगुणितं जप्तवेषु विजयष्टि ॥26॥अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यि युद्धसि।
    एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगम स यथागतम् ॥27॥एतच्छृत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा।
    धारयामास सुप्रीतो राघः प्रयतात्मवान् ॥28॥आदित्यं प्रेक्षय जप्तवेदं परं हर्षमवाप्त्वान्।
    त्रिराचाम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥29॥रावणं प्रेक्षय हृष्टात्मा जायर्थे समुपागमत्।
    सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥30॥अथ रविरावदन्निरक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमानः।
    निशिचरपतिसंक्षायं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वाचस्त्वरेति ॥31॥

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    शिव स्तोत्र

    पटना में मेरे नजदीक पंडितभवाय चन्द्रचूडय निर्गुणाय गुणात्मने।
    कालकालाय रुद्राय नीलग्रीवाय मङ्गलम् ॥ ॥
    वृषारूढ़ाय भीमाय व्याघ्रचरमाम्बराय च।
    पशूनां पतये तुभ्यं गौरीकान्ताय मङ्गलम् ॥ 2॥ Continue reading “शिव स्तोत्र”

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