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🙏राम का जन्म🙏



🙏राम का जन्म🙏
मन्त्रीगणों तथा सेवकों ने महाराज की आज्ञानुसार श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छुड़वा दिया। महाराज दशरथ ने देश देशान्तर के मनस्वी, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ प्रकाण्ड पण्डितों को यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये बुलावा भेज दिया। निश्चित समय आने पर समस्त अभ्यागतों के साथ महाराज दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा अपने परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभपाद के जामाता ऋंग ऋषि को लेकर यज्ञ मण्डप में पधारे। इस प्रकार महान यज्ञ का विधिवत शुभारम्भ किया गया। सम्पूर्ण वातावरण वेदों की ऋचाओं के उच्च स्वर में पाठ से गूँजने तथा समिधा की सुगन्ध से महकने लगा।

    समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा करने के साथ यज्ञ की समाप्ति हुई। राजा दशरथ ने यज्ञ के प्रसाद चरा को अपने महल में ले जाकर अपनी तीनों रानियों में वितरित कर दिया। प्रसाद ग्रहण करने के परिणामस्वरूप परमपिता परमात्मा की कृपा से तीनों रानियों ने गर्भधारण किया।
जब चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे, कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से एक शिशु का जन्म हुआ जो कि श्यामवर्ण, अत्यन्त तेजोमय, परम कान्तिवान तथा अद्भुत सौन्दर्यशाली था। उस शिशु को देखने वाले ठगे से रह जाते थे। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में महारानी कैकेयी के एक तथा तीसरी रानी सुमित्रा के दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ।

    सम्पूर्ण राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा। महाराज के चार पुत्रों के जन्म के उल्लास में गन्धर्व गान करने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं। देवता अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे। महाराज ने उन्मुक्त हस्त से राजद्वार पर आये हुये भाट, चारण तथा आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणों और याचकों को दान दक्षिणा दी। पुरस्कार में प्रजा-जनों को धन-धान्य तथा दरबारियों को रत्न, आभूषण तथा उपाधियाँ प्रदान किया गया। चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार महर्षि वशिष्ठ के द्वारा कराया गया तथा उनके नाम रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गये।
आयु बढ़ने के साथ ही साथ रामचन्द्र गुणों में भी अपने भाइयों से आगे बढ़ने तथा प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय होने लगे। उनमें अत्यन्त विलक्षण प्रतिभा थी जिसके परिणामस्वरू अल्प काल में ही वे समस्त विषयों में पारंगत हो गये। उन्हें सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने तथा हाथी, घोड़े एवं सभी प्रकार के वाहनों की सवारी में उन्हें असाधारण निपुणता प्राप्त हो गई। वे निरन्तर माता-पिता और गुरुजनों की सेवा में लगे रहते थे। उनका अनुसरण शेष तीन भाई भी करते थे। गुरुजनों के प्रति जितनी श्रद्धा भक्ति इन चारों भाइयों में थी उतना ही उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द भी था। महाराज दशरथ का हृदय अपने चारों पुत्रों को देख कर गर्व और आनन्द से भर उठता था।.

रुद्राष्टकम स्तोत्रम near me pandit raghav puja

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नमामीशमीशान निर्वाणरूपंhttp://ayodhyapanditji.com
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालं
गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं
मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा
लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥

न यावत् उमानाथ पादारविन्दं
भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥

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श्री शिव रामा स्तोत्रम


शिव शिव हरे राम सखे प्रभो त्रिविधतापनिवारं हे प्रभो।
अज जनेश्वर यादव पाहि मां शिव हरे विजयं कुरु मे वरम् ॥1॥

कमललोचन राम दयानिधि हर गुरो गजरक्षक गोपते।
शिवतनो भव शंकर पाहि मां शिव हरे विजयं कुरु मे वरम् ॥2॥

सुजनरंजन मङ्गलमन्दिरं भजति ते पुरुषः परमं पदम्।
भवति तस्य सुखं परमद्भुतं शिव हरे विजयं कुरु मे वरम् ॥3॥

जय युधिवल्लभ भूपते जयर्जितपुण्यपयोनिधे।
जय कृपामय कृष्ण नमोऽस्तु ते शिव हरे विजयं कुरु मे वरम् ॥4॥

भवविमोचन माधव मापते सुकविमानसहंस शिवार्ते।
जनकजारत राघव रक्ष मां शिव हरे विजयं कुरु मे वरम् ॥5॥

अवनिमंडलमङगल मापते जलदसुन्दर राम रमापते।
निगमकीर्तिगुणार्णव गोपते शिव हरे विजयं कुरु मे वरम् ॥6॥

पतितपावन नाममयी लता तव यशो विमलं परिगीयते।
तदपि माधव मां किमुपेक्षसे शिव हरे विजयं कुरु मे वरम् ॥7॥

अमरतापरदेव रामपते विजयतस्तव नामधनोपमा।
मयि कथं करुणार्णव जायते शिव हरे विजयं कुरु मे वरम् ॥8॥

हनुमतः प्रिय चापकर प्रभो सुरसरिद्धृतशेखर हे गुरो।
मम विभो किमु विस्मरणं कृतं शिव हरे विजयं कुरु मे वरम् ॥य॥

अहर्हर्जनर्जनसुन्दरं पथति यः शिवरामकृतं स्तवम्।
विशति रामरामचरणाम्बुजे शिव हरे विजयं कुरु मे वरम् ॥10॥

प्रातरुत्थाय यो भक्त्या पथेकाग्रामंसः।
विजयो जायते तस्य विष्णुमाराध्यमाप्नुयात् ॥॥

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श्री स्तोत्र

पुरुवाच
राज्य लक्ष्मीस्थिरत्वाय यथेन्द्रेण पुरा श्रियः।

स्तुतिः कृता तथा राजा जयार्थं स्तुतिमाचरेत् ॥1॥

इन्द्र उवाच
नमस्ये सर्वलोकानां जननीम्बधिसमभवां।

श्रियमुन्निन्द्रपद्माक्षिं विष्णुवक्षःस्थलस्थितं ॥2॥

त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा सुधा त्वं लोकपावनि।

सन्ध्या रात्रिः प्रभुभौतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती ॥3॥

यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने।

आत्मविद्या च देवी त्वं विमुक्तिफलदायिनी ॥4॥

आन्वीक्षिकी त्रयि वार्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च।

सौम्या सौम्यार्जग्द्रुपैस्त्वयैतदादेवी पूरितं ॥5॥

का त्वन्या त्वामृते देवी सर्वयज्ञमयं वपुः।

अध्यास्ते देव देवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः ॥6॥

त्वया देवी परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयं।

विनष्टप्रयम्भवत् त्वयेदानीं समेधितं ॥7॥

दाराः पुत्रस्तथागारं सुहृद्धन्याधनादिकं।

भवत्येतनमहाभागे नित्यं त्वद्विक्षणान् नृणां ॥8॥

शरीररोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षायः सुखं।

देवी त्वद्दृष्टिदृष्टानां पुरुषानां न दुर्ल्लभं ॥य॥

त्वम्बा सर्वभूतानां देवदेवो हरिः पिता।

त्वयैत्द्विश्नुना चम्ब जगद्व्याप्तं चराचरं ॥10॥

मानं कोशं तथा कोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदं।

मा शरीरं कलत्रञ्च त्यजेथाः सर्वपावनि ॥शी॥

मा पुत्रान्मासुहृद्वर्गन्मा पशून्मा विभूषणं।

त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षस्थलालये ॥12॥

सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः।

त्यजन्ते ते नरा सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले ॥3॥

त्वयावलोकिताः सद्यः शीलाद्यैर्खिलैर्गुणैः।

कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुण अपि ॥14॥

स शलाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिः स सु

रः स च विक्रान्तो यस्त्वया देवी विक्षितः ॥15॥सद्यो वै

गुण्यमायन्ति शीलादयाः सकला गुणाः।

पराङ्मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे ॥16॥

न ते वर्णयितुं शक्ता गुणान् जिह्वापि वेधसः।

प्रसीद देवी पद्माक्षी नास्मानस्त्यक्षिः कदाचन ॥17॥

॥ इत्यग्नेये महापुराणे श्रीस्तोत्रं नाम षटत्रिंशदधिकद्विशतमो ऽध्यायः॥

पुष्कर उवाच
राज्यलक्ष्मीस्थिरत्वाय यथेन्द्रेण पुरा श्रियः ।

स्तुतिः कृता तथा राजा जयार्थं स्तुतिमाचरेत् ॥१॥

इन्द्र उवाच
नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्धिसम्भवां ।

श्रियमुन्निन्द्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थितां ॥२॥

त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनि ।

सन्धया रात्रिः प्रभा भूतिर्म्मेधा श्रद्धा सरस्वती ॥३॥

यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने ।

आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ॥४॥

आन्वीक्षिकी त्रयी वार्त्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च ।

सौम्या सौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैतद्देवि पूरितं ॥५॥

का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः ।

अध्यास्ते देव देवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः ॥६॥

त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयं ।

विनष्टप्रायमभवत् त्वयेदानीं समेधितं ॥७॥

दाराः पुत्रास्तथागारं सुहृद्धान्यधनादिकं ।

भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान् नृणां ॥८॥

शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखं ।

देवि त्वद्दृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्ल्लभं ॥९॥

त्वमम्बा सर्वभूतानां देवदेवो हरिः पिता ।

त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरं ॥१०॥

मानं कोषं तथा कोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदं ।

मा शरीरं कलत्रञ्च त्यजेथाः सर्व्वपावनि ॥११॥

मा पुत्रान्मासुहृद्वर्गान्मा पशून्मा विभूषणं ।

त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षःस्थलालये ॥१२॥

सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः ।

त्यजन्ते ते नरा सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले ॥१३॥

त्वयावलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः ।

कुलैश्वर्य्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि ॥१४॥

स श्लाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान् ।स

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रक्ताम्बरो रक्तवपु: किरीति, चतुर्मुखो मेघागदो गदाध्रक।
धरसुत: शक्तिधरश्च शुलि, सदा मम स्याद् वरद: प्रशांत:।।1।।

धरणीगर्भसंभूतं विद्युतेजसमप्रभम्।

कुमारं शक्तिहस्तं च मंगलं प्रणमाम्यहम्।।2।।

ऋणहत्रे नमस्तुभ्यं दुःखदारिद्रानाशिने।
नमामि द्योतम्नाय सर्व कल्याणकारिणे।।3।।

देवदानवगंधर्वयक्षराक्षसपन्नगा:।
सुखं यान्ति यतस्तस्मै नमो धरणि सुनवे।।4।।

यो वक्रगतिमापन्नो नृणां विघ्नं प्रयच्छति।
पूजितः सुखसौभाग्यं तस्मै क्षमासूनवे नमः।।5।।

प्रसादं कुरु मे नाथ मंगलप्रद मंगल।
मेषवाहन रुद्रात्मन पुत्रान देहि धनं यश:।।6।।

इति मन्त्रमहार्णवे मंगल स्तोत्रम्।।

मेरे पास पंडित जी इंदौर

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गणपति स्तोत्र


मुदाकरात्तमोदकं सदा विमुक्तिसाधकं कलाधरावतंसकं विलासिलोकरक्षकम् ।
अनायकैकनायकं विनाशितेभदैत्यकं नताशुभाशुनाशकं नमामि तं विनायकम् ॥१॥

नतेतरातिभीकरं नवोदितार्कभास्वरं नमत्सुरारिनिर्जरं नताधिकापदुद्धरम् ।
सुरेश्वरं निधीश्वरं गजेश्वरं गणेश्वरं महेश्वरं तमाश्रये परात्परं निरन्तरम् ॥२॥

समस्तलोकशंकरं निरस्तदैत्यकुञ्जरं दरेतरोदरं वरं वरेभवक्त्रमक्षरम् ।
कृपाकरं क्षमाकरं मुदाकरं यशस्करं मनस्करं नमस्कृतां नमस्करोमि भास्वरम् ॥३॥

अकिंचनार्तिमार्जनं चिरन्तनोक्तिभाजनं पुरारिपूर्वनन्दनं सुरारिगर्वचर्वणम् ।
प्रपञ्चनाशभीषणं धनंजयादिभूषणम् कपोलदानवारणं भजे पुराणवारणम् ॥४॥

नितान्तकान्तदन्तकान्तिमन्तकान्तकात्मजं अचिन्त्यरूपमन्तहीनमन्तरायकृन्तनम् ।
हृदन्तरे निरन्तरं वसन्तमेव योगिनां तमेकदन्तमेव तं विचिन्तयामि सन्ततम् ॥५॥

महागणेशपञ्चरत्नमादरेण योऽन्वहं प्रजल्पति प्रभातके हृदि स्मरन् गणेश्वरम् ।
अरोगतामदोषतां सुसाहितीं सुपुत्रतां समाहितायुरष्टभूतिमभ्युपैति सोऽचिरात् ॥६॥

गणपति स्तोत्र

मुदाकरात्तमोदकं सदा विमुक्तिसाधकं कलाधरावतंसकं विलासिलोकरक्षकम् ।
अनायकैकनायकं विनाशितेभदैत्यकं नताशुभाशुनाशकं नमामि तं विनायकम् ॥१॥

नतेतरातिभीकरं नवोदितार्कभास्वरं नमत्सुरारिनिर्जरं नताधिकापदुद्धरम् ।
सुरेश्वरं निधीश्वरं गजेश्वरं गणेश्वरं महेश्वरं तमाश्रये परात्परं निरन्तरम् ॥२॥

समस्तलोकशंकरं निरस्तदैत्यकुञ्जरं दरेतरोदरं वरं वरेभवक्त्रमक्षरम् ।
कृपाकरं क्षमाकरं मुदाकरं यशस्करं मनस्करं नमस्कृतां नमस्करोमि भास्वरम् ॥३॥

अकिंचनार्तिमार्जनं चिरन्तनोक्तिभाजनं पुरारिपूर्वनन्दनं सुरारिगर्वचर्वणम् ।
प्रपञ्चनाशभीषणं धनंजयादिभूषणम् कपोलदानवारणं भजे पुराणवारणम् ॥४॥

नितान्तकान्तदन्तकान्तिमन्तकान्तकात्मजं अचिन्त्यरूपमन्तहीनमन्तरायकृन्तनम् ।
हृदन्तरे निरन्तरं वसन्तमेव योगिनां तमेकदन्तमेव तं विचिन्तयामि सन्ततम् ॥५॥

महागणेशपञ्चरत्नमादरेण योऽन्वहं प्रजल्पति प्रभातके हृदि स्मरन् गणेश्वरम् ।
अरोगतामदोषतां सुसाहितीं सुपुत्रतां समाहितायुरष्टभूतिमभ्युपैति सोऽचिरात् ॥६॥

चंद्र स्तोत्र top pandit in patna

चंद्र स्तोत्र top pandit in patna

      श्वेताम्बर: श्वेतवपु: किरीति, श्वेतद्युतिरदण्डधरो द्विबाहु:।
चन्द्रो मृतात्मा वरद: शशांक:, श्रेयांसि मह्यं प्रदातु देव:।।1।।

दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णवसंभवम्।
नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुटभूषणम्।।2।।

क्षीरसिंधुमुत्पन्नो रोहिणीसहित: प्रभु:।
हरस्य मुकुटवासः बालचन्द्र नमोस्तु ते।।3।।

सुधाशयया यत्किराना: पोषयन्त्योषधिवनम्।
सर्वान्नारशेतुं तं नमामि सिन्धुनन्दनम्।।4।।चंद्र स्तोत्र top pandit in patna

राकेशं तारकेशं च रोहिणीप्रियसुन्दरम।
ध्यायतां सर्वदोषघ्नं नमामिन्दुं मुहुर्मुहु:।।5।।

इति मन्त्रमहार्णवे चन्द्रमसः स्तोत्रम्।। Raghavpuja.com http://Raghavpuja.com

श्री बटुक-भैरव-अष्टोत्तर-शत-नाम-स्तोत्र

श्री बटुक-भैरव-अष्टोत्तर-शत-नाम-स्तोत्र
(क) ध्यान
वन्दे बालं स्फटिक-सदृशम्, कुन्तलोल्लासि-वक्त्रम्।
दिव्याकल्पैर्नव-मणि-मयैः, किंकिणी-नूपुराढ्यैः।।

दीप्ताकारं विशद-वदनं, सुप्रसन्नं त्रि-नेत्रम्।
हस्ताब्जाभ्यां बटुकमनिशं, शूल-दण्डौ दधानम्।।
(ख) मानस-पूजन
उक्त प्रकार ‘ध्यान’ करने के बाद श्रीबटुक-भैरव का मानसिक पूजन करे-
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये समर्पयामि नमः।

ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये समर्पयामि नमः।

ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये घ्रापयामि नमः।

ॐ रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये निवेदयामि नमः।

ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये समर्पयामि नमः।
(ग) मूल-स्तोत्र
ॐ भैरवो भूत-नाथश्च, भूतात्मा भूत-भावनः।
क्षेत्रज्ञः क्षेत्र-पालश्च, क्षेत्रदः क्षत्रियो विराट्।।१

श्मशान-वासी मांसाशी, खर्पराशी स्मरान्त-कृत्।
रक्तपः पानपः सिद्धः, सिद्धिदः सिद्धि-सेवितः।।२

कंकालः कालः-शमनः, कला-काष्ठा-तनुः कविः।
त्रि-नेत्रो बहु-नेत्रश्च, तथा पिंगल-लोचनः।।३

शूल-पाणिः खड्ग-पाणिः, कंकाली धूम्र-लोचनः।
अभीरुर्भैरवी-नाथो, भूतपो योगिनी-पतिः।।४

धनदोऽधन-हारी च, धन-वान् प्रतिभागवान्।
नागहारो नागकेशो, व्योमकेशः कपाल-भृत्।।५

कालः कपालमाली च, कमनीयः कलानिधिः।
त्रि-नेत्रो ज्वलन्नेत्रस्त्रि-शिखी च त्रि-लोक-भृत्।।६

त्रिवृत्त-तनयो डिम्भः शान्तः शान्त-जन-प्रिय।
बटुको बटु-वेषश्च, खट्वांग-वर-धारकः।।७

भूताध्यक्षः पशुपतिर्भिक्षुकः परिचारकः।
धूर्तो दिगम्बरः शौरिर्हरिणः पाण्डु-लोचनः।।८

प्रशान्तः शान्तिदः शुद्धः शंकर-प्रिय-बान्धवः।
अष्ट-मूर्तिर्निधीशश्च, ज्ञान-चक्षुस्तपो-मयः।।९

अष्टाधारः षडाधारः, सर्प-युक्तः शिखी-सखः।
भूधरो भूधराधीशो, भूपतिर्भूधरात्मजः ।।१०

कपाल-धारी मुण्डी च, नाग-यज्ञोपवीत-वान्।
जृम्भणो मोहनः स्तम्भी, मारणः क्षोभणस्तथा ।।११

शुद्द-नीलाञ्जन-प्रख्य-देहः मुण्ड-विभूषणः।
बलि-भुग्बलि-भुङ्-नाथो, बालोबाल-पराक्रम ।।१२

सर्वापत्-तारणो दुर्गो, दुष्ट-भूत-निषेवितः।
कामीकला-निधिःकान्तः, कामिनी-वश-कृद्वशी ।।१३

जगद्-रक्षा-करोऽनन्तो, माया-मन्त्रौषधी-मयः।
सर्व-सिद्धि-प्रदो वैद्यः, प्रभ-विष्णुरितीव हि ।।१४
।।फल-श्रुति।।
अष्टोत्तर-शतं नाम्नां, भैरवस्य महात्मनः।
मया ते कथितं देवि, रहस्य सर्व-कामदम् ।।१५

य इदं पठते स्तोत्रं, नामाष्ट-शतमुत्तमम्।
न तस्य दुरितं किञ्चिन्न च भूत-भयं तथा ।।१६

न शत्रुभ्यो भयं किञ्चित्, प्राप्नुयान्मानवः क्वचिद्।
पातकेभ्यो भयं नैव, पठेत् स्तोत्रमतः सुधीः ।।१७

मारी-भये राज-भये, तथा चौराग्निजे भये।
औत्पातिके भये चैव, तथा दुःस्वप्नजे भये ।।१८

बन्धने च महाघोरे, पठेत् स्तोत्रमनन्य-धीः।
सर्वं प्रशममायाति, भयं भैरव-कीर्तनात्।।१९
।।क्षमा-प्रार्थना।।
आवाहनङ न जानामि, न जानामि विसर्जनम्।
पूजा-कर्म न जानामि, क्षमस्व परमेश्वर।।

मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वर।
मया यत्-पूजितं देव परिपूर्णं तदस्तु मे।।

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